Shivmahimna Stotra

पुष्पदन्त रचित श्री शिवमहिम्न स्तोत्र | हिन्दी अर्थ सहित

पुष्पदन्त उवाच — श्री शिवमहिम्न स्तोत्र (1–43) — हिन्दी अर्थ सहित, Labh, पूजन‑विधि

1) परिचय

शिवमहिम्न स्तोत्र—गन्धर्व पुष्पदन्त कृत—शिव‑तत्त्व की अप्रमेय महिमा का काव्य‑स्तुति‑रूप है। कथा‑प्रसंग में उद्यान‑अपमान के प्रायश्चित्त हेतु पुष्पदन्त यह स्तोत्र गाते हैं और महादेव की अनुकम्पा से क्षमा पाते हैं।

क्षेत्र/मुद्रणानुसार शब्द/पद में सूक्ष्म भिन्नता सम्भव—भक्ति‑भाव मूल है।

2) श्री शिवमहिम्न स्तोत्र (1–43) — देवनागरी पाठ और हिन्दी अर्थ

(प्रत्येक श्लोक के नीचे सरल हिन्दी अर्थ दिया है ताकि आरम्भिक साधक भी समझते हुए पाठ कर सकें।)

1) महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तोत्रेणालङ्क्यां वा कथय जडसः स्तुतिरियम्।
कुर्वन्त्येव त्वेवं धरणिधरणी प्रेक्षिणो जनाः
यत्नाद्व्यक्तां वाचं जनननिवहाः स्तोत्रमिदम्॥ 1॥
अर्थ: आपकी महिमा असीम है—फिर भी हम जैसे सामान्य जन श्रद्धापूर्वक अपनी वाणी से आपकी स्तुति का प्रयत्न करते हैं।
2) अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्‑मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥ 2॥
अर्थ: आपकी महिमा वाणी और मन की पहुँच से परे है; शास्त्र भी उसकी सीमा स्वीकारते हैं—ऐसी स्थिति में कोई आपके गुणों का पूरा वर्णन कैसे करे?
3) मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतो
तव ब्रह्मन् किं वा सुरगुरोरपि विस्मयपदम्।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥ 3॥
अर्थ: ब्रह्मा और बृहस्पति जैसी महान वाणी भी आपकी महिमा कहने में आश्चर्य करती है; फिर भी मैं आपके गुण‑स्मरण से अपनी वाणी को पवित्र करने का संकल्प करता हूँ।
4) तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षा‑प्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥ 4॥
अर्थ: सृष्टि‑स्थिति‑संहार का ईश्वरीय कार्य आप ही करते हैं; फिर भी कुछ मूढ़ लोग आपकी महिमा का विरोध करते हैं—हे वरद, आप उनकी भूल क्षमा करें।
5) किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादानमिति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः॥ 5॥
अर्थ: जगत के मूल कारण पर तर्क करते‑करते लोग भ्रमित हो जाते हैं; आपकी अनिर्वचनीय सत्ता के आगे ऐसा कुतर्क केवल मोह ही बढ़ाता है।
6) अजन्तो लोकास्त्वं न खलु न भवान् कस्यचिदिह
अधिष्ठाता सर्वं तदपि सततं रक्षसि विभो।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रति नतिमृते संशय इमे॥ 6॥
अर्थ: लोकों का आरम्भ‑अन्त दिखता नहीं; पर पालन‑संरक्षण करने वाले अधिष्ठाता आप ही हैं—आपके बिना सृष्टि का प्रबन्ध कौन करे?
7) त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्नैः पन्थानैरुपगमविधिं बहुविधम्।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥ 7॥
अर्थ: वेद, सांख्य, योग, पाशुपत, वैष्णव—मार्ग अनेक हैं; किंतु सबका परम लक्ष्य आप ही हैं—जैसे सब नदियाँ समुद्र में मिलती हैं।
8) महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति
सुरास्तां तामृद्धिं दधति भवद्भूप्रणिहिताम्॥ 8॥
अर्थ: आपका अलंकरण बैल, खट्वाङ्ग, परशु, मृगचर्म, भस्म, नाग, कपाल आदि है; स्वात्माराम योगी को विषयों की मृगतृष्णा विचलित नहीं कर सकती।
9) ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥ 9॥
अर्थ: संसार में नित्य‑अनित्य दोनों का अनुभव होता है; इस अद्भुत रहस्य के बीच भी मैं आपकी स्तुति करने का साहस करता हूँ।
10) तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥ 10॥
अर्थ: ब्रह्मा‑विष्णु भी आपकी सीमा न पा सके; तब जो श्रद्धा‑भक्ति से आपकी स्तुति करें, उन्हें आपका अनुग्रह अवश्य मिलता है।
11) अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान्।
शिरःपद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्॥ 11॥
अर्थ: रावण जैसे बलशाली का भी गर्व आपके चरण कमल के स्मरण से शांत हुआ—यह आपकी भक्ति की स्थिरता का प्रभाव है।
12) अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजंगमं
कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीदिति ध्रुवममुय्यपि खलः॥ 12॥
अर्थ: जिसने आपकी सेवा का सार पाया, वह कैलास तक पहुँच गया; पाताल तक भी उसकी कीर्ति पहुँची—यह आपके चरण की प्रतिष्ठा है।
13) यदृद्धिं सत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥ 13॥
अर्थ: बाणासुर का अहंकार भी आपके चरणाश्रय से ही शमित हुआ; जो आपका शरणागत होता है, उसका कल्याण ही होता है।
14) अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा
विधेयस्यासीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभङ्गव्यसनिनः॥ 14॥
अर्थ: आपने त्रिशूलधारी होकर जगत की रक्षा के लिए विष पिया—कण्ठ पर वह नीला चिह्न भी लोक‑कल्याण का गौरवचिह्न है।
15) असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥ 15॥
अर्थ: कामदेव के बाण सबको जीत लेते हैं, पर आपके सामने वह भी असहाय हुआ—यह आपकी योगिश्वरता का प्रमाण है।
16) मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम्।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥ 16॥
अर्थ: आपके ताण्डव से पृथ्वी‑आकाश कांप उठते हैं, ग्रह‑नक्षत्र विचलित हो उठते हैं—और आप यह सब जगत‑रक्षा हेतु करते हैं।
17) वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥ 17॥
अर्थ: आपकी जटाओं पर बहती गंगा का प्रवाह तारों‑सा झिलमिल करता है; उसी से सारा पृथ्वी‑मण्डल पवित्र होता है—यह आपकी दिव्य देह की महिमा है।
18) रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणिः शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥ 18॥
अर्थ: त्रिपुर‑विनाश के समय आपका रथ पृथ्वी, सारथि ब्रह्मा, ध्वज इन्द्र, चक्र सूर्य‑चन्द्र थे—यह लीला दिखाती है कि स्वामी परतंत्र नहीं, स्वतंत्र हैं।
19) हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्॥ 19॥
अर्थ: विष्णु ने सहस्त्र कमलों से आपकी पूजा की; एक कमल कम पड़ा तो उन्होंने अपना नेत्र ही अर्पित किया—ऐसी भक्ति से जगत‑पालन होता है।
20) क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥ 20॥
अर्थ: यज्ञ‑कर्म का फल तभी मिलता है जब ईश्वर‑आराधना जुड़ी हो; इसलिए लोग आपको फलदाता मानकर श्रद्धा से कर्म करते हैं।
21) क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः॥ 21॥
अर्थ: यज्ञों के स्वामी आप हैं; आपके अनादर से यज्ञ विकृत हो जाते हैं—यह दक्ष‑यज्ञ प्रसंग से भी स्पष्ट है।
22) प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥ 22॥
अर्थ: ब्रह्मा द्वारा सरस्वती के प्रसंग में आपकी लीलामयी व्यवस्था से दुराचार का निवारण होता है—धर्म की रक्षा के लिए आपका संकल्प अटल है।
23) स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥ 23॥
अर्थ: कामदेव के दहन‑प्रसंग में जो आपको ‘स्त्रैण’ समझते हैं वे भ्रमित हैं; अर्धनारीश्वर‑भाव तो शिव‑शक्ति की समता का चिन्ह है।
24) श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिताभस्मालेपः स्रगपि नृकरोटीपरिकरः।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥ 24॥
अर्थ: आपके वैराग्य‑वेश (श्मशान, भस्म, कपाल) बाह्य दृष्टि से ‘अमंगल’ दिखें, पर स्मरण करने वालों के लिए आप परम‑मंगल हैं।
25) मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमविधायात्तमरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्संगतिदृशः।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान्॥ 25॥
अर्थ: योगी अंतर्मन में आपको देखते हैं और अमृत‑सागर में डूबते से आनन्द का अनुभव करते हैं—आप ही वह अन्तःतत्त्व हैं।
26) त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि॥ 26॥
अर्थ: सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी—सबमें व्याप्त आप ही हैं; हम यह नहीं जानते कि ऐसा क्या है जिसमें आप न हों।
27) त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्॥ 27॥
अर्थ: ‘ॐ’ (अ‑उ‑म) से सम्पूर्ण विश्व का संकेत होता है; आपका तुरीय पद सब वृत्तियों से परे है—वही शरण है।
28) भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहितनमस्योऽस्मि भवते॥ 28॥
अर्थ: ‘भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महान, भीम, ईशान’—इन नामों में शास्त्र आपके गुणों का निरूपण करते हैं—मैं उसी प्रकाशमय धाम को नमस्कार करता हूँ।
29) नमो नेदिष्टाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः॥ 29॥
अर्थ: जो सबसे निकट और सबसे दूर—दोनों हैं; सबसे सूक्ष्म और सबसे महान—दोनों हैं; हे त्रिनेत्र! आपको बार‑बार नमस्कार।
30) बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥ 30॥
अर्थ: सृष्टि‑स्थिति‑संहार में क्रमशः रज‑सत्त्व‑तम के पार जाकर जो निस्त्रैगुण्य शिव‑तत्त्व है—उसे नमस्कार।
31) कृशपरिणतिचेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधात्
वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम्॥ 31॥
अर्थ: मेरी अल्प बुद्धि कहाँ और आपकी अनन्त महिमा कहाँ! फिर भी भक्ति मुझे आपके चरणों में वाणी‑पुष्प अर्पित करने को प्रेरित करती है।
32) असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥ 32॥
अर्थ: यदि सरस्वती भी सागर की स्याही, पर्वत‑जितनी स्याही और पृथ्वी को कागज बनाकर लिखे तो भी आपकी महिमा का अंत न होगा।
33) असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्यान्दुमौलेः
ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥ 33॥
अर्थ: चन्द्रमौलि निर्गुण‑ईश्वर की महिमा गान करने हेतु गन्धर्वश्रेष्ठ पुष्पदन्त ने यह सुन्दर स्तोत्र रचा।
34) अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान् यः।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च॥ 34॥
अर्थ: जो इस स्तोत्र को नित्य पवित्र मन से पढ़ता है, वह शिवलोक में रुद्र के समान और पृथ्वी पर आयु, धन, पुत्र और कीर्ति प्राप्त करता है।
35) महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः
अघोरान्नापरो मन्त्रः नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥ 35॥
अर्थ: महेश्वर से बढ़कर देव नहीं, शिवमहिम्न से श्रेष्ठ स्तुति नहीं, अघोर‑मन्त्र से श्रेष्ठ मन्त्र नहीं और गुरु‑तत्त्व से बढ़कर तत्त्व नहीं।
36) दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥ 36॥
अर्थ: दीक्षा, दान, तप, तीर्थ, यज्ञ आदि सब मिलकर भी शिवमहिम्न स्तोत्र‑पाठ के सोळहवें अंश के बराबर नहीं।
37) कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दासः।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्नः॥ 37॥
अर्थ: गन्धर्वराज कुसुम‑दशन (पुष्पदन्त) देवों के देव चन्द्रमौलि के दास हैं; अपने अपराध से च्युत होकर उन्होंने यह दिव्य स्तोत्र रचा।
38) सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्गमोक्षैकहेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेताः।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्॥ 38॥
अर्थ: जो मनुष्य इसे भक्ति से पढ़ता है, वह शिव के समीप जाता है; यह पुष्पदन्त प्रणीत स्तोत्र अमोघ है।
39) आ समाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम्
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्।
इति श्रीपुष्पदन्तेन कृतं शिवमहिम्नः स्तोत्रं
सम्पूर्णमिदमित्येव प्रमाणं॥ 39॥
अर्थ: यह गन्धर्व वाणी द्वारा रचा शुभ स्तोत्र अद्वितीय और मनोहर है—यही प्रमाण है कि यह शिव‑महिमा का वर्णन पूर्ण करता है।
40) य इदं नित्यमधीयीत शिवमहिम्नः स्तोत्रम्
शुद्धचित्तः समाहितो भक्त्या सह।
तस्य कुलं पावनं भवति शिवप्रसादात्
दुःखानि नश्यन्ति, सिद्धयः स्वतः आगच्छन्ति॥ 40॥
अर्थ: जो इसे नित्य श्रद्धा से पढ़ता है, उसके कुल का कल्याण होता है, दुःख दूर होते हैं और सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त होती हैं।
41) त्वमेवात्रैकः पशुपतिरसौ लोकजननः
भगवान्मायेशो जगदिह गुणातीतो भवसि।
अतः सर्वं त्वत्त्वं शिव शिव वचोभिर्निगदितं
किमन्यद्वक्तव्यं हर मम मनः शङ्कर तव॥ 41॥
अर्थ: आप ही पशुपति, जगत‑जनक, माये के ईश्वर और गुणातीत हैं; सब तत्त्व अंततः ‘त्वत्त्व’ (आप ही) हैं—मेरे मन का आश्रय आप हों।
42) नमः शम्भो देव त्रिपुरहर शूलपाणे पशूनां
पतिं नीलग्रीवं गिरिश शुभदं भवानीपतिम्।
भवद्भक्त्या नित्यं भवति सुखमिहामुत्र नः
प्रसीद प्रभो त्वं हर हर महादेव विभो॥ 42॥
अर्थ: हे शम्भो, त्रिपुरहर, शूलपाणि, पशुपतिनाथ, नीलकण्ठ, गिरिश! आपकी भक्ति से हमें यहाँ‑परलोक में सुख मिले—प्रसन्न होइए।
43) इति श्री‑पुष्पदन्त‑विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं
सम्पूर्णम् — पठन्, शृण्वन्, ध्यायन् शिवस्य प्रसादम् लभते॥ 43॥
अर्थ: इस प्रकार पुष्पदन्त विरचित शिवमहिम्न स्तोत्र पूर्ण होता है—जो इसे पढ़ता, सुनता, मनन करता है, वह शिवप्रसाद को पाता है।
टिप्पणी: मुद्रण परंपराओं में 38–39 के पश्चात कोलॉफन/फलश्रुति के रूप में 40–43 भेद मिलते हैं; यहाँ भक्त‑प्रचलित पाठ‑रूप देकर हिन्दी अर्थ जोड़ा गया है।

3) Labh (लाभ)

  • शान्ति‑क्षमा‑समत्व: अहं‑शमन, क्षमा और समदृष्टि का विकास।
  • अद्वैत‑बोध: विभिन्न मत/मार्गों में एक परम‑लक्ष्य का दर्शन (श्लोक 7, 27–30 भाव)।
  • धैर्य‑वैराग्य: नीलकण्ठ‑भाव—नकारात्मकता का रूपान्तरण, संकट में आन्तरिक स्थैर्य।
  • सदाचार: सत्य, सेवा, संयम, समय‑पालन; कर्तव्य में निस्वार्थता।
  • अनुग्रह: विघ्न‑निवृत्ति, आयु‑आरोग्य‑कीर्ति, गृह‑शान्ति, सरल चित्त।

फल श्रद्धा, नियम और सत्कर्म पर आधारित हैं; अन्ध‑विश्वास नहीं, अभ्यास प्रमुख।

4) पाठ/पूजन‑विधि (सरल)

  1. संकल्प: स्नान के बाद शुद्ध स्थान पर आसन; दीप‑धूप, जल/पुष्प/बिल्व उपलब्धता अनुसार।
  2. ध्यान‑जप: ॐ नमः शिवाय 108; चाहें तो महामृत्युंजय 11/21 बार।
  3. स्तोत्र‑पाठ: ऊपर दिये 1–43 श्लोक क्रम से; समयाभाव में 1, 7, 24, 30, 32, 34, 35 चयन।
  4. आरती‑प्रसाद: “ओं जय शिव ओंकारा” या क्षेत्रीय आरती; फल/पंचामृत/जल नैवेद्य।
विशेष दिवस: सोमवार, प्रदोष, महाशिवरात्रि—तीर्थ स्नान/व्रत के साथ पाठ श्रेष्ठ।

5) मंत्र/आरती

पञ्चाक्षरी

ॐ नमः शिवाय

महामृत्युंजय

ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धानान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥

आरती (संक्षेप)

ॐ जय शिव ओंकारा, ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांग धरा… Full Shiv Aarti

6) FAQ

Q1. क्या इसे दैनिक पढ़ सकते हैं?

हाँ—प्रातः/संध्या में एक बार; सोमवार/प्रदोष में विशेष।

Q2. केवल हिन्दी अर्थ पढ़ना ठीक?

देवनागरी पाठ मुख्य; पर अर्थ के साथ पढ़ने से ध्यान बढ़ता है—धीरे‑धीरे उच्चारण सीखें।

Q3. त्वरित लाभ हेतु कौन‑से श्लोक?

7 (समन्वय), 24 (मङ्गल‑भाव), 30 (निस्त्रैगुण्य), 32 (अनन्त‑महिमा), 35–36 (महिमा‑स्तुति), 34 (फलश्रुति)।

7) नोट्स

पाठ‑रूप: क्षेत्रानुसार पाठ‑क्रम/शब्दों में सूक्ष्म भेद मिलते हैं; यहाँ भक्त‑प्रचलित संस्करण प्रस्तुत है।

हर हर महादेव
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