Ganpati Atharvshirsh

श्री गणपति अथर्वशीर्ष (पूर्ण) — हिन्दी अर्थ सहित, लाभ (Labh), संकष्टी/विनायक‑चतुर्थी पूजन‑विधि, मंत्र, आरती

श्री गणपति अथर्वशीर्ष (पूर्ण) — हिन्दी अर्थ सहित, लाभ (Labh), संकष्टी/विनायक‑चतुर्थी पूजन‑विधि, मंत्र, आरती

1) गणपति‑परिचय

श्री गणपति विघ्न‑विनाशक, बुद्धि‑प्रदाता और सिद्धि‑विनायक हैं। वेद‑उपनिषद् परंपरा में गणपति अथर्वशीर्ष (गणपतिउपनिषद्) पूजनीय है—जो गणेश को ब्रह्म‑तत्त्व के रूप में प्रतिपादित करता है: “त्वम् एव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।” इस ग्रंथ का पाठ साधक में विनय, एकाग्रता और विवेक का संचार करता है।

भाव सर्वोपरि—सामग्री सीमित होने पर भी श्रद्धा, संयम और सेवा‑भाव से पूजा करें।

2) श्री गणपति अथर्वशीर्ष (देवनागरी + हिन्दी अर्थ सहित)

(लोक‑प्रचलित पाठ; क्षेत्र/मुद्रणानुसार सूक्ष्म भिन्नताएँ संभव। अर्थ साधक‑हित में सहज हिन्दी में।)

ॐ नमस्ते गणपतये।
अर्थ: हे गणपति! आपको नमस्कार—मैं आपकी शरण में हूँ।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि।
अर्थ: आप ही प्रत्यक्ष ब्रह्म‑तत्त्व हैं—जिस सत्य की खोज होती है, वही आप हैं।
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि।
अर्थ: सृष्टि के सभी कार्यों का संचालन अन्ततः आप ही करते हैं।
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि।
अर्थ: जगत का पालन‑पोषण करने वाले भी आप ही हैं।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
अर्थ: समय आने पर संहार/समापन कराने वाले भी आप ही हैं।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।
अर्थ: यह समस्त जगत वस्तुतः आपके ही ब्रह्म‑स्वरूप से व्याप्त है।
त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम्॥
अर्थ: आप ही शाश्वत आत्मा हैं—सबके भीतर स्थित, साक्षीभाव में।
ॐ नमो व्रातपतये, नमो गणपतये, नमः प्रमथपतये।
अर्थ: गणों के स्वामी, समूहों के नायक और शिवगणों के अधिपति आपको वंदन।
नमस्तेऽस्तु लम्बोदराय, एकदन्ताय, विघ्ननाशिने, शिवसुताय, श्रीवरदमूर्तये नमः॥
अर्थ: लम्बोदर, एकदन्त, विघ्न‑विनाशक, शिवपुत्र और वरदान देने वाले श्रीविग्रह—आपको प्रणाम।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वम्। त्वं इन्द्रः त्वं अग्निः त्वं वायुः। त्वं सूर्यः त्वं चन्द्रमाः।
अर्थ: आप में ही सृष्टि‑स्थिति‑संहार की संयुक्त चेतना है—आप ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा इन्द्र, अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र सभी शक्तियों का समन्वय हैं।
त्वं ब्रह्म भूः भुवः स्वः ओम्॥
अर्थ: आप ही ब्रह्म तथा भू‑भुवः‑स्वः (तीन लोक) के अधिष्ठाता हैं; ओम् में निहित।
गणादीं पूर्वमुच्चार्य वर्णादींस्तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः। अनुदात्तः स्वरोऽपरः। उदात्तो मध्यतः।
अर्थ: जप‑विधि: सबसे पहले ‘ग’ आदि गण (ग‑ण‑). फिर वर्ण, फिर अनुस्वार (ं) को श्रेष्ठ बताकर स्वर‑उच्चारण का संकेत—अनुदात्त, उदात्त आदि।
एवं अष्टौ क्षराः। गणेशविधिः॥
अर्थ: इस प्रकार आठ अक्षरों की विधि (बीज/उच्चारण का संकेत) — यह गणेश‑विधि है।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्।
अर्थ: आप सदा मूलाधार (जीवन‑आधार/स्थिरता) में प्रतिष्ठित हैं—आरम्भ और आधार के देव।
त्वं शक्तित्रयात्मकः।
अर्थ: आप इच्छा‑ज्ञान‑क्रिया तीनों शक्तियों के एकीकृत स्वरूप हैं।
त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्।
अर्थ: योगी निरन्तर आपकी ही ध्यान‑धारणा करते हैं—स्थिरता/एकाग्रता हेतु।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वम्।
अर्थ: आपमें ही त्रिदेव शक्तियाँ एकरूप हैं—सृष्टि, स्थिति, संहार।
त्वं पृथ्वी त्वं आपस्त्वं तेजस्त्वं वायुस्त्वं आकाशः।
अर्थ: पंच‑महाभूत भी आपके ही रूप: पृथ्वी (स्थिरता), आप (शीतलता), तेज (ऊर्जा), वायु (प्राण), आकाश (विस्तार)।
त्वं इन्द्रियाणी मनो बुद्धिरहंकारश्च।
अर्थ: इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार—सब आपके अधीन और आपसे ही प्रकाशित।
त्वं चतुर्विधान वाक्मयः॥
अर्थ: आप वाणी के चार रूपों (परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी) के भी मूल हैं।
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः।
अर्थ: आप त्रिगुण (सत्त्व‑रजस्‑तमस्), देह‑त्रय (स्थूल‑सूक्ष्म‑कारण) और त्रिकाल (भूत‑वर्तमान‑भविष्य) से परे हैं।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्। त्वं योगिनां गुरुः। त्वं जगत् पिता।
अर्थ: आप मूलाधार के नायक, योगियों के गुरु और जगत‑पिता हैं—सुरक्षा/मार्गदर्शक।
त्वं नित्यम्, त्वं शुद्धः, त्वं बुद्धः, त्वं मुक्तः॥
अर्थ: आप सदा विद्यमान, शुद्ध, ज्ञानस्वरूप और मुक्तिदाता हैं।
त्वं अव्यक्तोऽसि। त्वं ओंकारः।
अर्थ: आप अव्यक्त (अलौकिक/निराकार) हैं और ‘ॐ’ के नाद‑बीज रूप भी आप ही हैं।
त्वं बिन्दुः, त्वं नादः, त्वं संहिता।
अर्थ: ‘बिन्दु’ (बीज/बीजाक्षर), ‘नाद’ (ध्वनि) और संहिता (शास्त्रीय संकलन)—इनके स्रोत आप।
त्वं ऋचः, त्वं साम, त्वं यजुः, त्वं अथर्वश्यः।
अर्थ: चारों वेदों का सार—ऋक, साम, यजुः, अथर्व—आपमें ही प्रतिष्ठित।
त्वं बाणपतिः। त्वं गणपतिः॥
अर्थ: आप आयुध/सैन्य के अधिपति (बाणपति) और गणों के स्वामी—गणपति।
त्वं एकदन्तोऽसि। त्वं चतुर्बाहुः।
अर्थ: आपका एकदन्त रूप और चतुर्बाहु स्वरूप उल्लेखित है—आत्म‑नियंत्रण व सत्कर्म का प्रतीक।
त्वं लम्बोदरः। त्वं शूर्पकर्णः।
अर्थ: लम्बोदर (क्षमा/धैर्य) और शूर्पकर्ण (सुनना/विवेक)—साधक के लिए गुण‑स्मरण।
त्वं हिरम्बकः। त्वं स्कन्दपूर्वजः।
अर्थ: आप हिरम्बक (हर‑का‑पुत्र) और कार्तिकेय के अग्रज—शिव‑पार्वती नन्दन।
त्वं ब्रह्मचारी। त्वं गृहपतिः।
अर्थ: ब्रह्मचर्य और गृहस्थ—दोनों मार्गों में साधक के आदर्श/समर्थक।
त्वं योगी। त्वं योगाधिपतिः॥
अर्थ: योग‑साधना के स्वामी—एकाग्रता/अनुशासन के दाता।
नमो व्रातपतये, नमो गणपतये। नमः प्रमथपतये… श्रीवरदमूर्तये नमः॥
अर्थ: पुनः गणों के स्वामी को प्रणाम—आप विघ्न‑नाशक, शिवपुत्र और वरदाता हैं।
एतन्मनुर्जपन् ब्रह्मवर्चसी भवति।
अर्थ: इसका जप करने वाला मनुष्य तेजस्वी/धर्मिष्ठ बनता है।
सर्वविघ्नैर्न बाध्यते। सर्वत्र सफलो भवति।
अर्थ: वह विघ्नों से बाधित नहीं होता और शुभ कार्यों में सफलता पाता है।
सर्वविद्यामवाप्नोति। सर्वाः सम्पदः प्राप्नोति।
अर्थ: ज्ञान‑लाभ और समृद्धि—अर्थात अध्ययन/कौशल/उद्योग में प्रगति।
सर्वदुःखात् प्रमुच्यते।
अर्थ: दुःख/क्लेश से मुक्ति—आत्मिक धैर्य और समाधान‑शक्ति की प्राप्ति।
सायं प्रयुञ्जानो रजः पापात् प्रमुच्यते। प्रातः प्रयुञ्जानो तमः पापात् प्रमुच्यते।
अर्थ: सायंकाल पाठ करने से रजोगुणजन्य दोष, प्रातः करने से तमोगुणजन्य आलस्य‑अज्ञान का क्षय।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो रजस्तमः पापात् प्रमुच्यते। सर्वत्र ध्यायन् सर्वत्र जपन् सदा सफलो भवति॥
अर्थ: यदि सुबह‑शाम दोनों समय करें तो रज‑तम दोनों का शमन—सर्वत्र स्मरण रखने वाला सदा सफल होता है।
य इदं अथर्वशीर्षं अधीयते स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
अर्थ: जो इस अथर्वशीर्ष का अध्ययन/पाठ करता है, वह ब्रह्म‑भाव का अधिकारी बनता है।
न शङ्का न मत्सरः। न लैलीयतां नानृतं ततः। सर्वं शान्तं शुभं मङ्गलं।
अर्थ: उसमें शंका/ईर्ष्या/विकलता/असत्य का क्षय होता है—जीवन में शान्ति‑शुभता आती है।
इति गणपतिअथर्वशीर्षम्॥
अर्थ: यहाँ गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ पूर्ण होता है।
॥ शान्ति मन्त्रः ॥
प्रस्तावना: समस्त लोक‑कल्याण के लिए शान्ति‑कामना।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
अर्थ: हे देवो! हमारे कान शुभ बात सुनें, नेत्र शुभ देखें; शरीर स्थिर और आरोग्यवान रहे।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूबिः। व्यशेम देवहितं यदायुः॥
अर्थ: पुष्ट शरीर/स्थिर इन्द्रियों से ईश्वर‑कार्य करते हुए आयु पूर्ण हो।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
अर्थ: इन्द्र से सामर्थ्य, पूषा से पोषण/मार्गदर्शन—हमारे लिए कल्याण हों।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
अर्थ: गरुड़ से सुरक्षा, और बृहस्पति से बुद्घि/नीति—हमारे लिए मंगलकारी हों।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
अर्थ: अदृष्ट (दैविक), आधिदैविक व आधिभौतिक—तीनों प्रकार के संकट शांत हों।
नोट: पाठ‑क्रम/शब्दावली में क्षेत्रानुसार सूक्ष्म अंतर मिलते हैं; अपनी परंपरा/गुरु‑निर्देश का मान रखें।

3) लाभ (Labh / Benefits)

  • मानसिक‑विवेक: एकाग्रता, स्मरण‑शक्ति, निर्णय‑क्षमता; अध्ययन/कार्य‑आरम्भ में स्पष्टता।
  • विघ्न‑निवारण: बाह्य‑आंतरिक बाधाओं पर संयम; धैर्य, व्यावहारिक बुद्धि, समाधान‑कौशल।
  • आत्म‑विकास: विनय, व्यवस्थितता, समय‑पालन, लक्ष्य‑स्थिरता; नए प्रोजेक्ट/यात्रा/अध्ययन का शुभारम्भ।
  • सामाजिक: सौहार्द, सहयोग, सेवा‑भाव; परिवार/टीम में सकारात्मक वातावरण।

लाभ श्रद्धा + अभ्यास + सदाचार पर आधारित हैं; अंध‑विश्वास से नहीं, सत्कर्म/अनुशासन से वास्तविक फल।

4) व्रत/पूजन‑विधि (संकष्टी/विनायक‑चतुर्थी)

  1. संकल्प: स्नान के बाद शुद्ध स्थान; गणपति का ध्यान—विघ्न‑निवारण व सद्बुद्धि हेतु व्रत।
  2. आसन‑दीप: पूर्व/उत्तराभिमुख बैठें; घी/तेल का दीप, धूप, शुद्ध जल/दूर्वा/लाल पुष्प; मोदक/फल नैवेद्य।
  3. मंत्र‑जप:
    मुख्य: ॐ गं गणपतये नमः — 108 बार।
    गणेश गायत्री: ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥
  4. अथर्वशीर्ष पाठ: देवनागरी पाठ, शुद्ध उच्चारण का प्रयास; समयाभाव में 1/3/11 आवृत्ति।
  5. आरती‑प्रसाद: “जय गणेश देवा” आरती; प्रसाद/मोदक वितरित करें, कृतज्ञता व्यक्त करें।
यदि सामग्री सीमित हो: केवल जल‑पुष्प/दूर्वा, दीप‑धूप और जप पर्याप्त; भाव ही प्रधान।

5) मंत्र‑जप सूची

बीज

ॐ गं (GAM)

मूल मंत्र

ॐ गं गणपतये नमः। (108)

गणेश गायत्री

ॐ एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥

वक्रतुंड

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व‑कार्येषु सर्वदा॥

लघु ध्यान

श्वास 4‑4 ताल; मन में लाल/स्वर्ण आभा, एकदन्त, दूर्वा/मोदक का स्मरण; 3–7 मिनट।

6) गणेश आरती (संक्षेप)

जय गणेश देवा, जय गणेश देवा। माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥ Full Ganesh Aarti

7) नियम‑निषेध व सावधानियाँ

  • सात्त्विक आहार‑विचार; कटु‑वाणी/अहंकार/आलस्य से दूरी।
  • दान शुद्ध कमाई से, विनम्रता के साथ; अन्न/वस्त्र/औषधि/शिक्षा‑सहायता श्रेष्ठ।
  • नियमितता प्राथमिक—कम समय में भी दैनिक 5–10 मिनट जप/अध्ययन।

8) सरल उपाय (घर पर)

सेवा‑दान

  • अन्न‑दान/विद्या‑सहाय/वृक्ष‑रोपण/स्वच्छता।
  • मोदक/फल का प्रसाद बाँटना—बच्चों/बुजुर्गों के साथ।

अनुशासन

  • समय‑पालन, कृतज्ञता‑डायरी, लक्ष्य‑ट्रैकिंग।
  • नए कार्य से पूर्व 1‑2 मिनट गणेश‑स्मरण/श्वास‑ध्यान।

9) कथा‑सार और प्रतीक

एकदन्त—आत्म‑नियंत्रण; लम्बोदर—क्षमा/धैर्य; मूषकवाहन—वासनाओं पर नियंत्रण; दूर्वा‑मोदक—सरलता/संतोष। उपनिषद्‑दृष्टि से गणेश ब्रह्म‑तत्त्व हैं—साधक को आरम्भ, अनुशासन और समर्पण सिखाते हैं।

10) त्वरित सारणी (Quick Tables)

विषयसंक्षेप
उचित समयप्रातः/संध्या; चतुर्थी/संकष्टी/गणेशोत्सव में विशेष।
आवश्यक सामग्रीदीप‑धूप, शुद्ध जल, दूर्वा/लाल पुष्प, मोदक/फल; उपलब्धता अनुसार।
मुख्य मंत्रॐ गं गणपतये नमः; गणेश गायत्री; वक्रतुंड।
आचरणविनय, सात्त्विकता, समय‑पालन, सेवा, अध्ययन।
लाभएकाग्रता, स्मरण‑शक्ति, विघ्न‑निवारण का भाव, लक्ष्य‑स्थिरता।

11) सामान्य प्रश्न (FAQ)

Q1. क्या अथर्वशीर्ष का दैनिक पाठ उचित है?

हाँ—दैनिक एक बार पर्याप्त; चतुर्थी/संकष्टी/गणेशोत्सव में विशेष फलदायक।

Q2. क्या उपवास अनिवार्य है?

अनिवार्य नहीं; स्वास्थ्य‑अनुकूल हो तो लघु‑उपवास/सात्त्विक आहार रखें।

Q3. क्या केवल हिन्दी अर्थ पढ़ना पर्याप्त है?

देवनागरी पाठ मुख्य है; पर अर्थ के साथ पढ़ने से मन‑एकाग्रता और समझ बढ़ती है। धीरे‑धीरे शुद्ध उच्चारण सीखें।

Q4. गलत उच्चारण से हानि?

उद्देश्य भाव और एकाग्रता है; सीखते हुए सुधारें—भय न रखें।

Q5. क्या बिना सामग्री केवल पाठ?

हाँ—भाव सर्वोपरि; दीप/जल/दूर्वा/पुष्प से सरल पूजा भी पर्याप्त।

12) नोट्स

परंपरा‑सूचक: अथर्वशीर्ष/आरती/मन्त्र पाठ में क्षेत्र/मुद्रणानुसार सूक्ष्म अंतर मिलते हैं। यह पोस्ट भक्त‑प्रचलित रूप का संकलन है। आपके क्षेत्र में जो रूप मान्य है, वही ग्रहण करें।

गणपति बप्पा मोरया
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