Shri Sukta Path
श्री सूक्त (Shri Suktam) — सम्पूर्ण पाठ देवनागरी में अर्थ सहित एवं लाभ, पठन-विधि, नियम
प्रस्तावना
श्री सूक्त ऋग्वेद/खिलसूक्त से प्रसिद्ध लक्ष्मी स्तुति है। यह दैहिक–दैविक–भौतिक समृद्धि, सौभाग्य, शुद्धिता और मंगल का आवाहन करती है। साधक यदि शुद्ध उच्चारण, विश्वास और नियमों के साथ इसका पाठ करें, तो गृह में लक्ष्मी–प्रसाद, अन्न-धन की वृद्धि, सौंदर्य, कीर्ति और संतोष का अनुभव होता है।
श्री सूक्त पाठ-विधि
समय एवं आसन
- शुक्रवार, पूर्णिमा, दीपावली, अक्षय तृतीया या प्रतिदिन प्रातः/संध्या।
- पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर, स्वच्छ पीत (पीला) या लाल आसन।
आवश्यक सामग्री
- श्री यंत्र/लक्ष्मी-गणेश चित्र, धूप/दीप, पीला पुष्प, कुमकुम, चावल।
- नैवेद्य: खीर/मिष्ठान्न/फलों का भोग।
विधि
- आचमन, संकल्प, ॐ गणेशाय नमः जप, ध्यान।
- दीप प्रज्वलित कर लक्ष्मी आवाहन; तत्पश्चात श्री सूक्त का पाठ।
- अन्त में क्षमा-प्रार्थना, आरति, प्रसाद-वितरण।
श्री सूक्त — मूल पाठ (देवनागरी)
नोट: पाठ से पहले ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः का ११, 21 या 108 जप कर सकते हैं। नीचे लोकप्रिय 15/16 मन्त्रों का क्रम दिया है।
- हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥ - तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥ - अश्वपूर्वां रथमध्याां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥ - काँ सुवर्णाकराां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥४॥ - तां म आहव जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्दे ॥५॥ - कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्बह्य कर्दम ।
श्रियं वासय मे कु ले मातरं पद्ममालिनीम् ॥६॥ - आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कु ले ॥७॥ - आर्द्रां पुष्करसिन्धुं पिन्वामि बृहस्पते ।
त्वां मा देवीं मातरं श्रियं वासय मे कु ले ॥८॥ - आर्द्रां यः करिणीं यस्यां हिरण्यं प्रभूतं ।
गावो दास्यो अश्वान् विन्दे पुरुषान् ॥९॥ - हरिण्यां लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ।
यां वरुणो दधाति दिवि चन्द्रामथोऽदितिः ॥१०॥ - कां सोस्मि तां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तरपेणीं ।
पद्मेषिणीं पद्मवरां प्रसन्नां पद्म प णीं त्वां ध्यायामि ॥११॥ - श्रीं देवीं प्रपद्येऽहं प्रसन्नां देवीं भगवतीं लक्ष्मीं नमाम्यहम् ॥१२॥
- त्वां म इह पद्मिनि आवह जातवेदो महियसीं ।
यया सौभाग्यमादद्यां हस्ताभ्यां सुप्रतीकां मम् ॥१३॥ - आहूतिः श्रियं आगच्छ धनदाऽऽगच्छ सुभाग्ये ।
वृत्ते मे गृहे प्रसन्ना भव देवी महेश्वरी ॥१४॥ - पद्मानने पद्मोर्भू पद्मपत्रे पद्मप्रिये ।
पद्महस्ते पद्माक्षि विश्वप्रिये नमोऽस्तु ते ॥१५॥ - यत्कटाक्ष समुपासना विधिः सेवकस्य सकलार्थसिद्धिदः ।
प्रसन्नया जगदम्ब विक्ष्यतां प्रसन्नता भवतु मे धनप्रदे ॥१६॥
⚠️ विभिन्न पाठ-क्रम प्रचलित हैं; आपके परिवार/गुरु परम्परा का क्रम भी मान्य है।
श्लोकवार अर्थ (भावार्थ)
१) "हिरण्यवर्णां…"
हे जातवेद (अग्निदेव)! आप उस लक्ष्मीजी का आवाहन करें जिनका वर्ण स्वर्ण समान तेजस्वी है, जिनकी कांति चन्द्र-सी है, जो सुवर्ण-रजत-मालाओं से अलंकृत हैं।
२) "तां म आवह…"
ऐसी अनपगामिनी (कभी न छूटने वाली) लक्ष्मी मेरे यहां आएँ, जिनकी कृपा से मुझे सोना, गायें, घोड़े और पुरुषार्थ की प्राप्ति हो।
३) "अश्वपूर्वां…"
जो पहले अश्व, बीच में रथ और अंत में गजध्वनि से सुशोभित समृद्धि का द्योतक शोभा लिए है—ऐसी देवी श्री का मैं आवाहन करता हूँ; वे मुझे स्वीकार करें।
४–५) "कां/तां म आहव…"
हे अग्निदेव! उस चन्द्रकान्ति, स्वर्णप्रभा-युत महालक्ष्मी को बुलाइए जिनकी उपस्थिति से घर में स्वर्ण, धान्य, गौ, दास-दासी एवं वाहनादि का विस्तार होता है।
६) "कर्दमेन…"
हे कर्दम ऋषि! जिनके मन्त्र से जन-समृद्धि होती है, वे मेरे घर में करुणा बरसाएँ और पद्ममालिनी लक्ष्मी सदा निवास करें।
७) "आपः सृजन्तु…"
मेरे घर में स्निग्धता, शीतलता और समृद्धि का सृजन हो; हे माता श्री! हमारे कुल में स्थिर निवास करें।
८) "आर्द्रां पुष्कर…"
हे बृहस्पति! मैं उस पद्मवासी, करुणामयी, सर्व-पोषिणी माता श्री का आह्वान करता हूँ; वे हमारे कुल में वास करें।
९) भाव
जो साधक भक्ति से श्री का ध्यान करता है, उसे धन-धान्य, गो-सम्पदा, सेवक, वाहन और समर्थ पुरुषार्थ मिलता है।
१०) "हरिण्यां लक्ष्मीं…"
हे अग्नि! वरुण तथा अदिति जिन्होंने जिसे दिव्य चन्द्रकान्ति दी है—ऐसी हिरण्मयी लक्ष्मी मेरे यहाँ आएँ।
११–१२) ध्यान एवं नमस्कार
मैं स्वर्णप्राकार-वेष्टि, ज्योतिरमयी, कमल-आसीन, करुणामयी लक्ष्मी का ध्यान करता/करती हूँ और उन्हीं भगवती को प्रणाम करता/करती हूँ।
१३–१४) सौभाग्य-प्रार्थना
हे जातवेद! ऐसी महियसी पद्मिनी लक्ष्मी को यहाँ लाएँ जो अपने दोनों करों से सौभाग्य प्रदान करें; वे मेरे गृह में सदैव प्रसन्न रहें।
१५–१६) स्तुति एवं कृपा-कटाक्ष
हे पद्मनयनी! हे विश्वप्रिये! आपकी कृपा-दृष्टि साधक के सभी कार्य सिद्ध कर देती है; धनप्रदा माता, मुझ पर कृपा दृष्टि बनाये रखें।
श्री सूक्त जप/पाठ के लाभ
- धन–धान्य वृद्धि: गृहस्थ जीवन में स्थिर आय, संग्रह और समृद्धि।
- ऋणमुक्ति एवं व्यापार-वृद्धि: नियमित शुक्रवार/पूर्णिमा को दीप-दान सहित पाठ।
- शान्ति व सौभाग्य: घर में कलह, दारिद्र्य और अशान्ति का शमन।
- आत्मविश्वास/चमक: व्यक्तित्व में तेज, आकर्षण, सौन्दर्य और कीर्ति।
- उत्सवोपयोगी: दीपावली, कोजागरी पूर्णिमा, धनतेरस पर विशेष फल।
टिप: स्तोत्र का दैनिक एक पाठ अथवा ११, २१, ३१ पाठ के अनुष्ठान से विशेष सिद्धि बतायी गयी है।
नियम एवं सावधानियाँ
- शुद्ध उच्चारण का प्रयास करें; न आ सके तो भाव से पाठ करें।
- पीत-वस्त्र, पीले पुष्प/कुमकुम, घी का दीपक शुभ।
- गुरु परम्परा/परिवार की विधि सर्वोपरि है—उसी का अनुसरण करें।
- सात्त्विक आहार, स्वच्छता और दान-व्रत से फल वृद्धि।
सम्पुट, न्यास एवं बीजाक्षर
साधना परम्पराओं में श्री सूक्त के मन्त्रों में श्रीं, ह्रीं, क्लीं आदि बीजों का सम्पुट जोड़ा जाता है। नवशिक्षुओं के लिए सरल सम्पुट इस प्रकार—
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः ॥ श्री सूक्त मन्त्र ॥ ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः ॥
न्यास, आवाहन, मण्डल आदि के विस्तृत प्रयोग गुरु-मार्गदर्शन में ही करें।
अतिरिक्त/सहायक मन्त्र
महालक्ष्मी गायत्री
ॐ महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि ।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥
लक्ष्मी-नारायण ध्यान
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं… (संक्षेप पाठ)
कुबेराष्टक (अंश)
युक्त-हस्तः स्थितो भाव्यः सिद्धि-लक्ष्मी-प्रदायकः…
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
- क्या शुक्रवार को ही आवश्यक है?
- अनुकूल माना जाता है, परन्तु नित्य-पूजन भी उतना ही फलदायी है।
- कितनी बार जप/पाठ करें?
- दैनिक १ पाठ, अथवा ११/२१/३१ की संख्या; अनुष्ठान में १,००८ तक।
- क्या स्त्रियाँ मासिक-धर्म में पाठ कर सकती हैं?
- घर-परम्परा के नियम भिन्न हो सकते हैं; शुद्धता-संयम का पालन सर्वोपरि।
- क्या व्यावसायिक स्थल पर भी कर सकते हैं?
- हाँ, दीपक/धूप, साफ-सुथरी वेदी, और श्रद्धा के साथ करें।
टिप्पणी व संदर्भ
यह पोस्ट धार्मिक/आध्यात्मिक अध्ययन एवं गृहस्थ साधना हेतु सरल भाषा में तैयार की गयी है। विभिन्न परम्पराओं के पाठ-क्रम में थोड़े-बहुत भेद सम्भव हैं—आपकी परम्परा सर्वोपरि है।
॥ श्रीः ॥