Mahishashur Mardini Stotra
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र (अयि गिरिनन्दिनि) पाठ + हिन्दी अर्थ सहित
1) महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र — सभी श्लोक देवनागरी में हिन्दी अर्थ सहित
(लोक‑प्रचलित पाठ; क्षेत्र/मुद्रणानुसार सूक्ष्म भिन्नताएँ संभव। अर्थ—सरल हिन्दी भावार्थ।)
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते ।
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 1 ॥
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 1 ॥
अर्थ: हे पर्वतराज की पुत्री! जो धरती को आनन्दित करती हैं, देवताओं को भी हर्ष देती हैं; जो विंध्याचल पर विराजमान हैं, विष्णु‑विलास से शोभित हैं, विजयी इन्द्र द्वारा वन्दित हैं; शिव‑कुटुम्ब की आधार, अनन्त लोकों की माता—ऐसी महिषासुर‑मर्दिनी, रम्य जटाधारी, शैलसुता—आपको जय हो।
अयि सुरवर्येऽखिलदेवमयि भसुरभयंकरि काश्मलवामिनि ।
त्रिभुवनमस्तकशूलविराजिनि शुम्भनिशुम्भमहोमहिनि ।
घटघटघट्टितघण्टकनिघ्ननकिङ्किणि मेदुरभूतकटे ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 2 ॥
त्रिभुवनमस्तकशूलविराजिनि शुम्भनिशुम्भमहोमहिनि ।
घटघटघट्टितघण्टकनिघ्ननकिङ्किणि मेदुरभूतकटे ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 2 ॥
अर्थ: देवश्रेष्ठों द्वारा पूजिता, सब देवताओं में व्यापक, दुष्टों का भय दूर करने वाली, अविद्या को हरने वाली; तीनों लोकों के मस्तक पर त्रिशूल‑राजिता, शुम्भ‑निशुम्भ का घमण्ड चूर्ण करनेवाली; जिनकी कटि पर घंटियों‑कर्णनाद से रणभूमि गंुंज उठती है—ऐसी महिषासुर मर्दिनी को नमन।
अयि निजहुङ्कृतिमात्रनिराकृतधूम्रविलोचनधूम्रशते ।
समरविशोषितशोणितबीजसमुद्भवशोणितबीजलते ।
शिवशिवशुम्भनिशुम्भमहाहवतरकदुरन्तनिशान्तिते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 3 ॥
समरविशोषितशोणितबीजसमुद्भवशोणितबीजलते ।
शिवशिवशुम्भनिशुम्भमहाहवतरकदुरन्तनिशान्तिते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 3 ॥
अर्थ: आपके एक ‘हुंकार’ से धूम्रलोचन जैसे असुर दल‑दल हो जाते हैं; रणक्षेत्र में जिनके रक्त‑बीज से लता‑सी सेना उगती थी, उस रक्तबीज का भी आपने अंत किया; शुम्भ‑निशुम्भ जैसे महादैत्यों का दमन कर के आप परम शान्ति देती हैं—आपको बारम्बार प्रणाम।
अयि रणदुर्मदशत्रुवधोदितदुर्गतिशोकविनाशिनि ।
दुर्गमदुर्गतिनाशिनि दुर्गति नाशिनि दुर्गविनाशिनि ।
जय जय जयै कति चन्द्रवदन धरणीवतन्सितहंसिनि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 4 ॥
दुर्गमदुर्गतिनाशिनि दुर्गति नाशिनि दुर्गविनाशिनि ।
जय जय जयै कति चन्द्रवदन धरणीवतन्सितहंसिनि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 4 ॥
अर्थ: रण में मदोन्मत्त शत्रुओं का वध कर दीनों‑दुर्गतों का शोक हरने वाली, कठिन दुर्गति का नाश करने वाली, सब प्रकार की आपदाओं का विनाश करने वाली; चन्द्र समान वदन, धरती के मुकुट‑मणि समान शोभा—आपकी जय हो।
अयि शरणागतवैरीवधुवरवधूवरवीरवराभये ।
त्रिभुवनपूजितचामररञ्जितशम्बरभृङ्गनिलीयशये ।
मधुमधुरे मधुकैटभधारितरक्तधुरन्धरनिर्मथने ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 5 ॥
त्रिभुवनपूजितचामररञ्जितशम्बरभृङ्गनिलीयशये ।
मधुमधुरे मधुकैटभधारितरक्तधुरन्धरनिर्मथने ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 5 ॥
अर्थ: जो शरणागतों को अभय देती हैं, शत्रुओं का संहार कर वीरों की रक्षक हैं; तीनों लोक जिनकी सेवा में चामर डुलाते हैं, जिनके चरणों में शम्भरादि असुर कीट समान विनम्र हैं; जिन्होंने मधु‑कैटभ का अभिमान मथ डाला—ऐसी देवी को नमस्कार।
अयि सहस्रमुखा चन्द्रविम्बशुभा सदृशशुभा सुधामयि ।
कनककटककिङ्किणि रञ्जितकाञ्चनमञ्जुलवञ्चुलि ।
विजयरमाऽवनि रामणि वन्दितकन्दरकन्दलितामलि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 6 ॥
कनककटककिङ्किणि रञ्जितकाञ्चनमञ्जुलवञ्चुलि ।
विजयरमाऽवनि रामणि वन्दितकन्दरकन्दलितामलि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 6 ॥
अर्थ: सहस्रमुखी‑सी चन्द्रविम्ब‑शुभा, अमृतमयी; स्वर्ण कटक‑कंकणों की रुनझुन से अलंकृत करकमल; लक्ष्मी और पृथ्वी द्वारा वन्दित—ऐसी कन्दरा‑कन्दलित (पर्वत‑विहारिणी) अम्बिका—आपका जय हो।
अयि कमलासनकान्तविनोदिनि विष्णुविलासिनि जीविते ।
जय सति जय सुलोचनि त्रैलोक्यसुन्दरि मुक्तिदे ।
धृतसुरकन्यकहाननरूपिणि विश्वविहारिणि विश्वसुते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 7 ॥
जय सति जय सुलोचनि त्रैलोक्यसुन्दरि मुक्तिदे ।
धृतसुरकन्यकहाननरूपिणि विश्वविहारिणि विश्वसुते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 7 ॥
अर्थ: ब्रह्मा के हृदय में आनन्द भरने वाली, विष्णु लीला से शोभित, जगत का जीवन; सत्यस्वरूपा, सुन्दर नेत्रों वाली, तीनों लोकों को सुशोभित करने वाली, मुक्तिदायिनी; सर्वरूपा, विश्व‑विहारिणी, जगत की माता—आपका विजय हो।
अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्बवनप्रिय रोचनक्रीडिते ।
अयि शुककण्ठि तनुतरङ्गि मणिकुण्डल लोलितकर्णयुगे ।
अयि शुकराजशुभप्रददेहि कृपाकटाक्षनिरिक्षिते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 8 ॥
अयि शुककण्ठि तनुतरङ्गि मणिकुण्डल लोलितकर्णयुगे ।
अयि शुकराजशुभप्रददेहि कृपाकटाक्षनिरिक्षिते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 8 ॥
अर्थ: हे जगत्‑जननी! कदम्ब‑वन में विहार प्रिय है; शुक‑कण्ठ‑सी मधुर वाणी और तनिक तरल रूप, जिनके कानों में रत्नकुण्डल लहराते हैं; कल्याणस्वरूपा, कृपा‑कटाक्ष से कृपा करने वाली—आपकी जय हो।
अयि मयि दीन दयालु कृपानिधे त्वयि नितरां मम मनो निवसतु सदा ।
भवभयहारिणि मातरि सर्वदेव्यम्बिके त्वं हि शरणं मम शोकहरिणि सदा ।
त्रिभुवनसुन्दरि भावितचेतसि त्वं हि परात्परा देवि नतास्मि पदे सदा ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 9 ॥
भवभयहारिणि मातरि सर्वदेव्यम्बिके त्वं हि शरणं मम शोकहरिणि सदा ।
त्रिभुवनसुन्दरि भावितचेतसि त्वं हि परात्परा देवि नतास्मि पदे सदा ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 9 ॥
अर्थ: हे दीनदयालु! मेरा मन सदा आप में स्थित हो; आप भव‑भय हरने वाली माता, सर्वदेव्यम्बिका हैं—आप ही मेरा शरण हैं; तीनों लोकों की सुन्दरी, परात्परा देवी! मैं सदा आपके चरणों में नतमस्तक हूँ—आपका जय हो।
अयि खलु कल्मषकल्पितकल्पित दोषगणप्रकटीकृतकारिणि ।
अयि दयिते दयितार्तिहरिणि शरण्ये भजामि शिवे शिवदायिनि ।
अयि कमले कमलालयतेजसि विश्वजनीनि जय विजयी भव ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 10 ॥
अयि दयिते दयितार्तिहरिणि शरण्ये भजामि शिवे शिवदायिनि ।
अयि कमले कमलालयतेजसि विश्वजनीनि जय विजयी भव ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 10 ॥
अर्थ: पापकर्मों के दोष प्रकट करके उन्हें दूर करने वाली; भक्तों की पीड़ा हरने वाली, शरणागतों की रक्षिका; कमले! कमलायत तेजस्विनी! जगत‑जननी! आप विजयी रहें—आपको जय।
अयि शरणागत वत्सल मातृके त्वं हि करुणार्णव रूपिणि शान्तिदे ।
विजितमहासुरराक्षससङ्घे जयति जगत्त्रितये तव कीर्त्तये ।
भवतु न मे भव दुर्गतिः कत्चिदपि त्वदङ्घ्रि युगं शरणं मम भावये ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 11 ॥
विजितमहासुरराक्षससङ्घे जयति जगत्त्रितये तव कीर्त्तये ।
भवतु न मे भव दुर्गतिः कत्चिदपि त्वदङ्घ्रि युगं शरणं मम भावये ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 11 ॥
अर्थ: शरणागत‑वत्सला, करुणासागर, शान्ति देने वाली माता! आपने महान असुर‑राक्षस संघों को जीता; तीनों लोकों में आपकी कीर्ति गूँजती है; आपके चरण‑कमल मेरा सदा शरण बने रहें—हे देवी, आपकी जय।
अयि धनुराञ्चित राक्षसराजनिःशङ्कमङ्कित दिङ्मुख शूलिनि ।
कृतधनुषाकृतधन्विनमर्दिनि शत्रुबलक्षयकारिणि चण्डिके ।
प्रणमत देहि जयाम्ब नितम्बिनि त्वं हि दयं कुरु देवि शरण्यके ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 12 ॥
कृतधनुषाकृतधन्विनमर्दिनि शत्रुबलक्षयकारिणि चण्डिके ।
प्रणमत देहि जयाम्ब नितम्बिनि त्वं हि दयं कुरु देवि शरण्यके ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 12 ॥
अर्थ: धनुष चढ़ाए राक्षसराजों का भय मिटाने वाली; शूलधारिणी, शत्रुबल का क्षय करने वाली चण्डिका; हम प्रणाम करते हैं—हे अम्ब, कृपा कर विजयोपहार दें; शरण्ये देवि, दया करें।
अयि शरणे तव किं न कृतं मया दुष्कृतपुञ्जं अपास्य सुदुस्तरम् ।
यदि किल मे मनसेह भवेद्रतिर्वन्दनमेकमिदं विधिहृद्यम् ।
तदपि कृपां कुरु देवि न मोचये त्वत्पदयुग्मभजे नितरामहम् ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 13 ॥
यदि किल मे मनसेह भवेद्रतिर्वन्दनमेकमिदं विधिहृद्यम् ।
तदपि कृपां कुरु देवि न मोचये त्वत्पदयुग्मभजे नितरामहम् ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 13 ॥
अर्थ: आपकी शरण में रहकर और क्या न किया जा सकता था! मैंने पाप‑पुञ्ज को छोड़ दिया; यदि मन में आपकी भक्ति रहे और यह वन्दन ही मेरा नित्य विधि बन जाए—हे देवी! मुझ पर कृपा करें; मैं आपके चरण‑युगल का सदा भजन करता रहूँ।
अयि करवालविकण्डित राक्षस रुधिरधारा धवळीकृत भूतले ।
विगतशोकार्तसमस्तजनप्रमुदितहृद्यधिनायकि चण्डिके ।
विजितसहस्रमखादि सुरासुर समरशोणितबीजविमर्दिनि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 14 ॥
विगतशोकार्तसमस्तजनप्रमुदितहृद्यधिनायकि चण्डिके ।
विजितसहस्रमखादि सुरासुर समरशोणितबीजविमर्दिनि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 14 ॥
अर्थ: आपकी तलवार से कटे राक्षसों के रक्त से धरती लाल हो उठी; शोकाकुल जनों के हृदय में उल्लास जगाने वाली अधिनायिका चण्डिका! सहस्रमुख (इन्द्र) आदि देव‑असुरों के संग्राम में रक्तबीज का मर्दन करने वाली—आपकी जय।
अयि सहदेव सुतादि समुच्चित कृत्यकृतोदित कीर्त्ति निवेदिते ।
भवतु ममापि सदा खलु भूतले ते चरणपङ्कज भक्ति निरन्तरम् ।
जननि कृपां कुरु देवि निरन्तरं त्वत्कटाक्षामृतं मयि वारिदे ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 15 ॥
भवतु ममापि सदा खलु भूतले ते चरणपङ्कज भक्ति निरन्तरम् ।
जननि कृपां कुरु देवि निरन्तरं त्वत्कटाक्षामृतं मयि वारिदे ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 15 ॥
अर्थ: देवताओं द्वारा स्तुत आपकी कीर्ति सर्वत्र निवेदित है; हे जननि! मुझे भी सदा आपके चरण‑कमलों की निरन्तर भक्ति मिले; हे देवि! कृपा कर मुझे अपने कटाक्ष‑अमृत से आप्लावित करें—आपकी जय।
अयि जगदेकपितामहतामह समस्तचराचर जनन्यम्बिके ।
शरणमुपैति यदीह सुदुर्लभं जननिहि तस्य कuto भयमेव किम् ।
भवतु स दाप्तसमस्तसुखान्वितः त्वयि भयवर्जितचित्तविनिश्चरः ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 16 ॥
शरणमुपैति यदीह सुदुर्लभं जननिहि तस्य कuto भयमेव किम् ।
भवतु स दाप्तसमस्तसुखान्वितः त्वयि भयवर्जितचित्तविनिश्चरः ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 16 ॥
अर्थ: हे जगत की आदि‑माता! जो आपकी शरण आता है, उसके लिए क्या भय? वह समस्त सुख से सम्पन्न होकर निर्भय मन से जीवन जीता है—ऐसी माताश्री को नमन।
अयि भवदायत भावरसप्रिये श्रुतिरससिन्धुसुधातरङ्गिणि ।
हृदय मतङ्गज राज नितम्बिनि शरण्ये त्रयीतरङ्गीणि शङ्करि ।
नमदि हि मे मनसेह निरन्तरं तव चरणारविन्द युगं शिवि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 17 ॥
हृदय मतङ्गज राज नितम्बिनि शरण्ये त्रयीतरङ्गीणि शङ्करि ।
नमदि हि मे मनसेह निरन्तरं तव चरणारविन्द युगं शिवि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 17 ॥
अर्थ: आप भक्ति‑रस की प्रिय, वेद‑रस सागर की सुधा तरंगिनी हैं; हृदय रूपी मतंग‑राज पर आरूढ़ (अर्धनारी) शंकर की प्रिया; मेरा मन सदा आपके चरण‑कमलों में नम्र रहे—जय हो।
अयि कमले कमलाक्ष विहारिणि विश्ववनौकसि विश्वमनोगते ।
भवति मम त्वयि भक्ति रतिश्चिरं न खलु चलिष्यति चेतसि मे क्वचित् ।
इति नयनत्रयमम्ब भवेत्सदा शरणं मम त्वदितीव सुन्दरि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 18 ॥
भवति मम त्वयि भक्ति रतिश्चिरं न खलु चलिष्यति चेतसि मे क्वचित् ।
इति नयनत्रयमम्ब भवेत्सदा शरणं मम त्वदितीव सुन्दरि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 18 ॥
अर्थ: हे कमले! कमल‑नेत्र‑विहारिणि! विश्व के मन में विराजमान देवी—आपमें मेरी भक्ति और प्रेम अटल रहे; आपके त्रिनयन ही मेरे शरण रहें—हे अति सुन्दरी, आपकी जय।
अयि करुणाकरि मातरि विश्वसृजि त्रिजगतां जननि त्रिपुराम्बिके ।
शरण्य शेङ्करि काञ्चनवर्णिनि त्वमसि ममेति सदा कृतनिश्चया ।
भजति स भक्तिवशं कृतदेहिनां भवति कृपापरिपूरणदायिनी ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 19 ॥
शरण्य शेङ्करि काञ्चनवर्णिनि त्वमसि ममेति सदा कृतनिश्चया ।
भजति स भक्तिवशं कृतदेहिनां भवति कृपापरिपूरणदायिनी ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 19 ॥
अर्थ: करुणामयी माता, विश्व‑सृष्टिकर्त्री, तीनों लोकों की जननी, त्रिपुराम्बिका! शरण्ये, काञ्चनवर्णिनि! आप मेरी हैं—यह मेरा निश्चय है; देहधारियों को भक्ति से वश में करके आप कृपा से भर देती हैं—जय हो।
अयि तव भक्तजनस्य समृद्धये हरिहरवन्द्य पदाम्बुज योगिनि ।
अवतु सदा मम वैरि निवारिणि त्रिजगतां जननि त्वमहोम्बिके ।
सकलविभूतिमयी सुमनोहरे वदतु जनो जयदे जयदे सदा ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 20 ॥
अवतु सदा मम वैरि निवारिणि त्रिजगतां जननि त्वमहोम्बिके ।
सकलविभूतिमयी सुमनोहरे वदतु जनो जयदे जयदे सदा ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 20 ॥
अर्थ: हे हरि‑हर वन्दित चरण‑कमलवाली योगिनि! भक्तों की समृद्धि हेतु, मेरे शत्रु‑निवारण हेतु, तीनों लोकों की जननी अम्बिके! आप सर्वविभूतिमयी, सुमनोहर हैं—सब लोग सदा ‘जय‑जय’ कहें—जय हो।
अयि नदीनम्रवनप्रिय वन्दित हे हिमगिरिकन्ये नमोस्तु ते ।
जय जय हे जगदेक जनार्द्दने त्रिजगतां जननि त्रिपुरसुन्दरी ।
महिषवधोदितकीर्त्तिरिह स्फुटं भवतु नित्यमनिष्टविनाशिनि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 21 ॥
जय जय हे जगदेक जनार्द्दने त्रिजगतां जननि त्रिपुरसुन्दरी ।
महिषवधोदितकीर्त्तिरिह स्फुटं भवतु नित्यमनिष्टविनाशिनि ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 21 ॥
अर्थ: हे नदियों‑वनों में रमण करने वाली, हिमालय‑कन्ये! आपको नमस्कार; जगदम्ब! त्रिपुरसुन्दरी! महिषासुर‑वध से प्रस्फुटित आपकी कीर्ति नित्य बनी रहे, आप सर्व अनिष्ट का नाश करती हैं—आपकी जय हो।
नोट: पाठ‑रूपान्तरों में कुछ श्लोक पंक्तियाँ/समास भिन्न दिख सकते हैं (उदा. ‘अयि’/‘ऐगिरि’ रूप)। अपने गुरु‑परम्परा में प्रचलित पाठ को प्राथमिकता दें।
2) लाभ (Labh / Benefits)
- निडरता व आत्मबल: महिषासुर/शुम्भ‑निशुम्भ‑विजय प्रसंग से भीतियों और नकारात्मकता पर विजय का प्रेरण।
- संकल्प‑शक्ति: ‘हुंकार’ प्रतीक–अंदर की दुविधा/आलस्य का छेदन; कर्म में उत्साह।
- रक्षा‑भाव: शरणागत‑वत्सला देवी—गृह/परिवार पर सुरक्षा‑संरक्षण का भाव सुदृढ़।
- वाणी‑तेज: ‘शुककण्ठि, कङ्कण‑रञ्जित’—मधुर वाणी, सौम्य आचरण, तेजोवृद्धि का संकेत।
- भक्ति‑समृद्धि: नियमित पाठ से मन‑एकाग्रता, सकारात्मकता, समृद्धि‑भाव और कृतज्ञता।
लाभ श्रद्धा + नियमित अभ्यास + सत्कर्म पर आधारित हैं; चिकित्सकीय/कानूनी परामर्श नहीं।
3) जप/पूजन‑विधि (सरल)
- संकल्प: स्नान के बाद स्वच्छ स्थान; मातृ‑शक्ति, साहस, शान्ति हेतु संकल्प।
- दीप/अर्चना: घी/तिल का दीप; लाल/पीले पुष्प; अक्षत/कुमकुम/दुर्वा/नैवेद्य।
- मन्त्र‑जप: ॐ दुं दुर्गायै नमः — 108 बार
- स्तोत्र‑पाठ: ऊपर दिये 1–21 श्लोक भाव से; अर्थ पढ़ते‑समझते जाएँ।
- आरती‑प्रसाद: ‘जय अम्बे गौरी’ या क्षेत्र‑प्रचलित आरती; शान्ति‑पाठ।
⏱️ समय: दैनिक प्रातः/संध्या; नवरात्रि/शुक्रवार/अष्टमी को विशेष फलदायक।
4) मंत्र‑सूची
दुर्गा बीज
ॐ दुं दुर्गायै नमः (108)
अम्बा गायत्री
ॐ कात्यायन्यै विद्महे कन्याकुमार्यै धीमहि ।
तन्नो दुर्गिः प्रचोदयात् ॥
नवर्ण मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
5) सामान्य प्रश्न (FAQ)
Q1. क्या यह 21 श्लोक ही मानक हैं?
हाँ, प्रचलित पाठ में 21 पद्य (कहीं‑कहीं 22/12 का संक्षिप्त रूप) मिलते हैं; क्षेत्रानुसार लघु भिन्नताएँ संभव।
Q2. क्या उपवास आवश्यक है?
अनिवार्य नहीं; स्वास्थ्य‑अनुकूल हो तो लघु‑उपवास/सात्त्विक आहार; भाव सर्वोपरि।
Q3. केवल अर्थ पढ़ना ठीक है?
देवनागरी पाठ मुख्य; अर्थ से मन‑एकाग्रता और समझ पुष्ट होती है—धीरे‑धीरे उच्चारण सीखें।
6) नोट्स
परंपरा‑सूचक: पाठ‑रूप/समास/छन्द में क्षेत्रानुसार भेद सम्भव; अपने गुरु/परम्परा में प्रचलित पाठ को प्राथमिकता दें।